Thursday, September 30, 2010

उसे बख्श देना...


मैं तुम पर बिगडा करती हूं कि...
मेरी किस्मत में उसका नाम नहीं लिखा
कि उसका हाथ मेरे हाथों में नहीं दिया
कि उसकी सांसों से मेरे जीवन की डोर नहीं बांधी
कि उसका साथ मुझे नहीं बख्शा

लेकिन ये सब कहते हुये,
शायद मैं ये भूल जाती हूं...
कि उसका नाम मेरी दुआओं में शामिल ही कहां था?
उसको मैंने मांगा ही कब था?

मैंने तो बस उसके चेहरे पर हंसी मांगी थी
उसकी राहों में फूलों की आरज़ू की थी
उस से जुडे हर शख्स के लिये रौनक चाही थी
और मांगी थी...
उसके लिये ऐसी ज़िन्दगी कि लोग हसद करें

और ये सब तुम उसे दोगे... जनती हूं मैं
वरना...
उसे पाने की खातिर नहीं, लेकिन...
उसकी खुशियों के लिये तो... तुमसे झगड ही पडूंगी...

Monday, September 20, 2010

भारमुक्त


मेरे लबों पर उसकी कहानी क्यूं रहे?
रगों मे लावे की तरह बहते खून की रवानी क्यूं रहे?
कि जिसे कहती हूं मैं ज़िंदगी अपनी,
जब वो ही नहीं तो ज़िन्दगानी क्य़ूं रहे?

कि वो मेरे अपने हैं, उनसे खुद को छीन नहीं सकती
तोड दूंगी डोर ही रिश्तों की, भला ये रिश्ते बेमानी क्यूं रहे?
हक़ है उन्हें मुझे दर्द देने का, कि खुशियां लुटाईं हैं मुझ पर...
मगर मेरे दर्द के कर्ज़ से दबी उसकी जवानी क्यूं रहे?

मैं करूंगी हक़ अदा हर एक एहसान का..
हर उस शख़्स का जो मेरी ज़िंदगी से जुडा, जो मेरा मेहमान था...
मगर मेरे ग़म की जागीर उसके पास बतौर निशानी क्यूं रहे?
ये मेरे हिस्से के आंसू हैं, मेरे रिश्तों से मिले...
इन आंसुओं में उसका हिस्सा???
अब भला ये मेहरबानी क्यूं रहे?

Sunday, September 19, 2010

यादों को ख़त...


ये उदासी, ये दर्द कहना तो बहुत कुछ चाहता है
मगर मन के किसी कोने में दबी तुम्हारी याद...
गाहे बगाहे अपना असर दिखाती है और...
पानी की एक बूंद मुझे कभी रुसवा... कभी तन्हा कर जाती है

जानते हो???

'जिनको' कल एतराज़ था मेरे और तुम्हारे हमकदम होने पर
वो आज भी मुझे अपनी मर्ज़ी से चलाया करते हैं
मेरी दुखती रग को जान कर छू जाते हैं...
"कितना रोती हो?" कह कर और भी रुलाया करते हैं

मैं 'उनको' और तुमको अक्सर एक तराजू में तौला करती हूं
पलडा हमेशा तुम्हारी तरफ ही झुकता है, मगर...
मैं एहसान का एक बांट 'उनके' पलडे में रख कर
अनचाहे ही हर बार उन्हें जिताया करती हूं

हर बार तुम्हारी हार मेरे दिल में गहरे उतर जाया करती है
तुम्हें भुलाने की एक और कोशिश सिरे से बिखर जाया करती है
जिसे 'त्याग' कह कर पहले खुद को समझा लिया करती थी,
अब वो भी किसी ज़ख्म पर मरहम नहीं रखता...
'जिनकी' खातिर कर दिया तुम्हें पराया,
'उनमें' से भी कोई कभी सिर पर हाथ नहीं धरता...

आज भी जब आंखें और आंसू बेहद थक जाते हैं
तब...
तुम्हारी ही कही कोई बात ना जाने कौन दोहरा देता है?
मैंने तो आईने को बरसों से मुस्कुराते नहीं देखा, मगर...
मेरे अंदर तुम्हारा प्रतिबिम्ब अब भी मुस्कुरा देता है...

Saturday, September 18, 2010

एक नाकामयाब कोशिश...


"अब तुम तेज़ क्यूं नहीं चलतीं?"
"मैं तुम्हारी तरह ये कंगारू चाल नहीं चल सकती."
"मैं कंगारू हूं? रुको अभी बताता हूं..."
"पहले पकड तो लो फिर बताना" इतना कह कर वो समुद्र तट पर दौड पडी. पहले तो मैं काफ़ी देर तक उसे पकडने की कोशिश करता रहा फ़िर कुछ तो थकावट और कुछ लोगों की हम में बढ्ती दिलचस्पी के कारण मैं वहीं रेत पर बैठ गया. वो भी वहीं करीब आ कर बैठ गई.

"क्यूं भड्कूलाल, हार गये?"
"अभी मज़ा चखाता हूं." कहकर मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढाया ही था कि वो फुर्ती से हट गई और मेरी अंगुलियां पास पडे टिन के एक कैन पर बज गईं.
"ओह! लग गई क्या?" मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर वो उसे सहलाने लगी. मेरी अंगुली से ज़्यादा दर्द उसकी आंखों में था. मैंने धीरे से उसका हाथ दबाया और कहा, "अब छूट कर दिखाओ मेरी पकड से."

"कौन छूटना चाहता है जी?"

"अच्छा जी?" मैंने जब उसकी आंखों में आंखें डाल कर कहा तो उसने ज़ोर से हंसते हुये चेहरा फेर लिया. ये उसका अपना तरीका था... शर्माने का या यूं कहें कि अपनी शर्म छिपाने का.

"चलें?" उसने अपना हाथ छुडाते हुये कहा

"मगर अभी तो तुम्हारे पापा यानी मेरे future father-in-law व्यस्त होंगे. ये सही मौका नहीं होगा तुम्हारा हाथ मांगने का. इतनी जल्दी है क्या?"

मैंने उसे छेडने की कोशिश की मगर ना जी... क्या मज़ाल कि वो बात को हाथ से छूट कर कहीं जाने दे.
"जल्दी तो है. मैं ना पापा को फोन कर के यहीं बुला लेती हूं"

उसने बैग से mobile निकाला और मैं हमेशा की तरह उसे देख कर हंसता ही रह गया. कोई बला की खूबसूरत तो नहीं थी मगर हां खूबसीरती में कोई कमी नहीं थी और कुछ था उसकी ख़नकदार हंसी में जो उसकी तरफ खींचता था.


आज कितने साल बाद उसकी वही हंसी देखूंगा. आठ साल में पता नहीं कितनी बदल गई होगी मगर उसकी हंसी की वो ख़नक शायद अब भी वैसी ही हो... यही सब सोचते हुये मैंने उसकी कोठी के बाहर लगी doorbell बजा दी. एक अधेड महिला ने दरवाज़ा खोला.

"आप सुयश हैं ना?"
"जी? जी हां... आप?"
"आप आइये, बहूजी आपका ही रास्ता देख रही हैं."

मैं उसके वैभव को देख कर चकित था. शायद आज भी उसने वही मोरपंखी नीला पहना हो...मेरा मनपसंद. अपने ख़यालों में ग़ुम मैंने उस महलनुमा कोठी की बैठक में प्रवेश किया. लेकिन ये सामने कौन है? मेरी वसु???

नहीं ये मेरी वसु नहीं हो सकती...ये सफ़ेद कपडे...चेहरे पर उम्र से पहले दस्तक देता बुढापा और उसकी वो औपचारिक सी मुस्कुराहट जो होठों के सिवा चेहरे पर कहीं भी नहीं पहुंची थी.

"बैठो सुयश"
"..., तुम तो बेहद बदल गई हो वसु!"
"पहले जैसा तो कुछ भी नहीं रहा ना?"
"तुम्हारे पति नहीं दिखाई दे रहे?"
"वो? वो मुझे भी कभी-कभी ही दिखाई देते हैं." उसने हंसने की नाक़ाम सी कोशिश की
"मतलब?"
"मतलब ये कि वो मेरी तरह फालतू नहीं हैं... बहुत काम हैं उन्हें. उनकी छोडो, क्या लोगे तुम्?"
"...."
"इतनी कडवाहट ज़िंदगी में कब भर गई?"
"बस, जब से मिठास से नाता टूटा"
"नाता टूटा कहां था सुयश? तुमने ही तोड दिया."
आगर मालूम होता कि ये अंजाम होगा तो कभी तुम्हारे पापा से तुम्हारा सौदा नहीं करता."
"सौदा?"
"हां... तुम्हारी ज़िंदगी से दूर जाने की बाक़ायदा क़ीमत अदा की थी उन्होंने."

उसके चेहरे पर किसी तरह के आश्चर्य के भाव नहीं उभरे. मानो हर भाव...हर भावना से परे हो गई हो. एक अजीब सा ठहराव सा था जो उसकी ज़िंदगी के साथ साथ उसकी बोली में रच बस गया था.

"हम्म! पापा तो हमेशा से ही काबिल व्यापारी थे मगर तुम कब इतने हिसाबी किताबी हो गये सुयश?" कहते हुये उसकी आंख से एक मोती टूट कर गिरा जिसे मैं चाह कर भी अपनी मुट्ठी में क़ैद नही कर पाया.

"तुम्हारी हंसी के हिसाब किताब में तो मैं हमेशा ही पक्का था वसु. लेकिन हां, तुम्हारे पापा की तरह काबिल व्यापारी नहीं था. वो मेरी ज़िंदगी भर के अरमान, खुशियां, सपने सब ले गये....बिना कीमत चुकाये और मुझे मालूम तक ना होने दिया."

"मेरी हंसी की कीमत तुम्हारी खुशी कभी नहीं थी सुयश. काश! तुमने मुझसे पूछा होता तो तुम्हें मालूम होता कि मेरी हर हंसी तुमसे जुडी थी, सिर्फ तुमसे. और जब तुम ही नहीं थे तो मैं इस पत्थर के मक़ान में हंसी ढूंढने की कोशिश भी क्यूं कर करती?"

"इस मक़ान को घर बनाने की कोशिश तो कर सकती थीं ना?"

"मेरी हर कोशिश को तुम्हारा संबल चाहिये होता था सुयश और आज भी मैं बदली नही हूं."

"मैं चलता हूं वसु." मैंने अपने आंसुओं को छुपाकर उठना चाहा.
"देखती हूं कि तुम भी नहीं बदले. ख़ैर मैं ने तुम्हें कभी नहीं रोका, आज भी नहीं रोकूंगी. हो सके तो खुश रहने की कोशिश करना."

मैं तेज़ कदमों से बाहर चला आया. शुक्र है कि बारिश हो रही है और मुझे अपने आंसुओं को रोकने जैसी कोई कोशिश नहीं करनी होगी. लेकिन इन आंसुओं में ये पछतावा कभी नहीं बहेगा कि मैं उसे समझ नहीं पाया जिससे सच्चे प्यार का दावा था मुझे. उसकी हंसी की ख़्वाहिश की थी मगर... और वो आज भी मुझ पर ये एतबार रखती है कि मैं उसके बिना खुश रहने की बस कोशिश भर कर सकता हूं... सिर्फ कोशिश... एक नाकामयाब कोशिश...