Thursday, January 21, 2010


वो छंद में बंधता नहीं
वो काव्य में ढलता नहीं
उन्मत्त-सा उन्माद है
जो काग़जों में थमता नहीं

वो आकाश सम छतरी है मेरी
उसका छोर भी मिलता नहीं
वो प्रेम की गठरी है मेरी
जिसका सिरा कभी खुलता नहीं

वो मीत है...वो प्रीत है...
उसकी मुस्कान ही मेरी जीत है
ग़र संग मेरे वो है खडा तो
दुर्भाग्य भी भयभीत है...

ग़र फल मेरी मुस्कान हो...
मेरी खुदी, मेरा सम्मान हो
तो श्रम से वो थकता नहीं...

पर छंद में बंधता नहीं
वो काव्य में ढलता नहीं

10 comments:

  1. kyee baar chah ke bhi kavita nahi banti ya wo hi kavita me nahi aa pata.

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  2. Monali ji


    Bahoot hi Sunder Rachana

    vo chhand main bandra nahi


    Ati Sunder

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  3. bahut sunder rachna hai aapki....monali ....waqt nikalkar ...hamare blogs par aaye mohtarma

    http://aleemazmi.blogspot.com/

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  4. कैसा मन का भटकाव है.जो ढूंढते हो वो मिल भी जाए फिर भी हम उसकी ही तलाश करते है.मरीचिकाओं में घिर कर खुद भी इक मरीचिका हो जाते हैं हम

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  5. kya baat hai !
    Wow....bahut achchhi kavita likhti ho

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  6. hai vyakt bhi avyakt vah / sur taal me bandhtaa nahin / goonge kaa gud / jaadoo hai sir chdhtaa nahin .... vah chhand me bandhtaa nahin ...
      veerubhai

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  7. bahut khoob :)

    http://sparkledaroma.blogspot.com/
    http://liberalflorence.blogspot.com/

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  8. वह छन्द मे बंधे न बंधे
    वह काव्य में ढले न ढले
    पर इस रचना का काव्य और छन्द दोनो उम्दा हैं
    बहुत सुन्दर

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  9. wo prem ki gathri hai meri jiska sira kabhi milta nahi ...wah monali ..uttam ...

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  10. क्यू बान्धती हो.. उसे खुला रहने दो.. स्वछन्द... सुन्दर रचना..

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