Tuesday, December 21, 2010

पैच अप wid परमात्मा

कई दिनों की गरमा गरमी के बाद मेरा और राम जी का पैच अप हो गया... कुछ बातें उन्होने मेरी मान लीं और कुछ जगह मैं भी रानी बेटी की तरह झुक गई. तो मेरी बहुत प्यारि दोस्त प्रेरणा ने मुझे राम जी को थैंक्स कहने के लिए एक कविता लिखने की प्रेरणा दी क्योंकि मैंने राम जी से झगड के भी कई कविताएं लिखी थीं जैसे कि "उसे बख्श देना" और "आत्मसमर्पण"... तो प्रेरणा की प्रेरणा, शेखर के टेक्निकल गाइडेंस, मेरी श्रद्धा और तुम्हारे प्रेम का नतीजा ये कविता हाज़िर है ः)



एक दीवानी सी लडकी इक रोज़ झगड बैठी मुझसे...
बोली, तू सबको नाच नचाए.. मैं ना बोलूंगी तुझसे...

मुझ पर ये इल्ज़ाम रखा था कि...
मैंने उसकी खुशिया छीनीं,
मैंने उसके सपने तोडे,
आस दिखा कर सुखद भविष्य की... असमंजस के रिश्ते जोडे...

गुस्से में मुझको धमका कर पगली बोली थी मुझसे...
प्रियतम की ग़र खुशियां छीनी... ना बात करूंगी फिर तिझसे
नर-नारायण के इस झगडे के प्रत्युत्तर में मैं तब केवल हंस पाया था...
कैसे उसको भवितव्य दिखाता.. जिस पर खुशियों का साया था???

पर कल रात हो गया तरुणी के सम्मुख वो सारा सत्य उजागर
जान गई कि खुशियों के ही पुष्प बिछे हैं उसके प्रियवर के पथ पर

आज फिर वो सरला आई थी मुझसे मिलने मंदिर में...
नैंनों में कुछ नीर भरा था, बोली प्रफुल्लित स्वर में...

"उसको दे कर इतनी खुशियां, प्रभु तुमने मुझको जीता
आज से तुम भी मित्र हो मेरे.. मैं भूली जो कल बीता
आब से कोई शिकायत होगी ना मुझको तुमसे
जान गई तुम तारणहार हो.. तारोगे तम से.. ग़म से...

अब से मेरे अधरों पर सद प्रमुदित मुस्कान रहेगी
ग़र तरल हुए भी नैना तो मन में ये बात रहेगी

उसकी खुशियां संजो संजो कर मैं नित ही मुसकाऊंगी
नहीं वो मेरा...एह्सास है मुझको... फिर भी जश्न मनाऊंगी
मन मंदिर के इक हिस्से में कर के तेरी प्राण प्रतिष्ठा
मेरी भक्ति के दिए में एसके प्रेम की जोत जलाऊंगी"

Saturday, December 11, 2010

पहली दो कवितायें

This is my 50th post over dis blog. Truelly speaking, i get bored wid things very soon n wen i started dis blogging, i had no idea that even a single person will follow me except a few friends of mine but for my surprise nw i have a no. of frnds here.

Today i want to treat you ol wid my VERY FIRST POEMS.

मुझे अच्छी तरह याद है कि इनमें से पहली कवित मैंने कोई १२ साल की उम्र में लिखी थी. कारगिल युद्ध के समय हम्रा विद्यालय से कारगिल के जवानों के लिए पोस्टकार्ड भेजे जाने थे और हर बच्चे को कुछ लिखना था. तब मैंने उस खुले मैदान में बैठ कर ये कविता लिखी थी.

उठो जवानों वक़्त आ गया अब हिम्मत दिखलाने का
दुश्मन के नापाक इरादे मिट्टी में दफ़नाने का
गांधीवादी बन कर हमने अब तक तो था मौन धरा
अब ऐसा कुछ कर जायेंगे कांप उठेगी वसुंधरा




अब मैं अपनी लिखी कोई कविता इतनी बार नहीं पढटी जितना इस कविता को पढा था. और उस वक़्त मुझे ये दुनिया की सबसे बेहतरीन कविता लगती थी.. आज सोचो तो हंसी आती है.

दूसरी कविता उसी शाम मैंने लिखी थी जो कुछ इस तरह थीः


सहमी सहमी, चुप चुप सी...बैठी आंगन के कोने मे
बचपन भूली, यौवन भूली...घर आंगन के कामों में
पत्नी,मां,बेटी के पद उसकी ज़िम्मेदारी हैं
फिर भी इतनी बेबस दुर्बल क्यूं दुनिया में नारी है



ये कविता आज भी मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक है. अपने घर वालों को इस ब्लोग के बनने तक मैं ये यकीन नहीं दिला पायी थी कि मैं इन्हें कहीं से चुरा कर नहीं ला रही हूं. मेरे भाई बहन को आज तक भरोसा नही है इस बात का. हां शायद मां अब मान गई हैं... अब मुझे खुश करने के लिए मान गईं हैं या सच में मान गईं हैं ये कहना मुश्किल है :D

Saturday, December 4, 2010

तुम और तम...


नींद मेरी आंखों से कोसों दूर रहती है
बोझिल होती हैं पलकें मगर आराम नहीं
ये रात मुझे जगये रख कर बहुत कुछ कहती है
मेरी तन्हाई और अपने अंधेरे को तौला करती है,
पता नहीं...
मेरे हिस्से में कडवाहट ज़्यादा या व ही ज़्यादा सहती है?

बांटा करती है अपने दामन में छिपा कर रखे काले किस्से
मेरी ये सहेली भी मेरी तरह उजालों से डरा करती है

कई बार इसकी बातों को नज़रांदाज़ कर जाती हूं
इसके किस्सों को दरकिनार कर आगे बढ जाती हूं
मगर दूसरे ही पल इस पछतावे से घिर जाती हूं...
कि ये तो अपनी कालिमा में मेरे आंसू छिपा लेती है,
है तिमिर से घिरी, उपेक्षित...फिर भी दोस्ती निभा लेती है...

फिर मुझमें ये स्वार्थ क्यूं जाना?
और तब से ही इसे सुनती हूं...हर रोज़...बिना नागा...

Saturday, November 27, 2010

आखिरी सीख...


मेरी लाडो... विदाई में तेरी बस ये ताकीद है मेरी
कि जो मैंने छीना है तुमसे, उसे तुम याद मत रखना
भले से पालो मेरे लिये कडवाहट, भले से माफ मत करना

हर सुबह खुशियों से सजाना...
पूरे दिन बेवज़ह मुस्कुराना..
और फिर काली रातों में टूट के बिखर जाना

महफिलों में खिलखिलाना...
रौनकों में जगमगाना..
और फिर ढूंढ कर के तन्हाई खुद में सिमट जाना

मांग के टीके की खातिर कई बाज़ारों में फिरना...
सुहाग के त्योहारों पर घण्टों तक सजना..
और फिर आईने के सामने आंसुओं में पिघल जाना

तुम खुद हर रोज़ चाहे टूटो..
तुम खुद हर रोज़ भले बिखरो..
हर ज़ख्म पर पर अप्ने मेरी कसम क मरहम रखना...
मेरी गुडिया बाबा की इज़्ज़त क भरम रखना...

माना मांगा है मैंने तुमसे जो है मुश्किल बडा ही
मगर खुद को मान कर मुर्दा, बस ताउम्र मेरी तरह...
हर रोज़ मर मर कर तुम भी जीती चली जाना...

मेरी लाडो... विदाई में तेरी बस ये ताकीद है मेरी
कि जो मैंने छीना है तुमसे, उसे तुम याद मत रखना
भले से पालो मेरे लिये कडवाहट, भले से माफ मत करना

Tuesday, November 23, 2010

मैं किस्से में बीती हूं...


सभी ये पूछते हैं मुझसे...
कि क्या मसरूफियत हैं मेरी?
भला दिन कैसे कटता है?

अब कैसे कहूं उनसे?
भला वो क्यूं कर मानेंगे?

कि दिन इस सोच में बीता
कि तुमको भूल गई हूं मैं,
और रातें...
...तुम्हारी यादों में!!!

कुछ पहर निकलते हैं सोचने में गुज़री बातें,
कुछ पहर निकल जाते, बातों से किस्से बनाने में!!!

ग़र कभी जुटा कर के मैं हिम्मत कह भी दूं किसी से ये,
तो कुछ हैरान होते हैं, कुछ रह जाते हैं बस हंस कर...
कुछ निकल कर दो कदम आगे,
बढ जाते हैं ये कह कर...

कि क्यूं बनाती हो बहाने तुम निकम्मापन छुपाने के???
भला ये इश्क़ मुश्क़ के किस्से होते हैं बताने के???

जोड के दो-चार शब्दों को कह देती हो तुम कविता...
कैसे भला मानें कि ये सब तुम पर है बीता???

मैं भी कभी हैरान...कभी परेशान होती हूं...
अब समझाऊं भी तो कैसे कि...

किस्सा मुझ पे नहीं बीता, मैं किस्से में बीती हूं

मैं तो गुज़रे ज़माने में ही रह गई थी कहीं पर...
आज में तो बस...
वो ज़माना दोहराने को जीती हूं...

Friday, November 19, 2010

प्रश्न???

ये कविता कुछ साल पहले लिखी थी मगर हालातों की बात करें तो आज ज़्यादा प्रासंगिक लगती है...इसके लिये प्रशंसा की उम्मीद खुद से बेईमानी होगी...बस share करना चाहती हूं..





प्रश्न???
हर दिन एक नये रूप में दिख जाता है
मथता है मेरे मस्तिष्क को...
इसको हल करना जटिल है
क्योंकि इसकी सोच कुटिल है
मेरी सोच को विस्तार देना इसका उद्देश्य नहीं
बस मुझे हरा देना चाहता है
मेरे होठों से छीन कर हंसी..मुझे रुला देना चाहता है
और इसलिये हर रोज़ विकराल रूप धर कर आता है..
कसता है जाल मेरी खुशियों के इर्द गिर्द..
और फिर कसता जात है इस जाल को तब तक्...
जब तक मेरी हंसी दम ना तोड दे

यूं तो मैंने इसे हराया है कई बार
मगर ये बात अब पुरानी है
ऐस तब होता थ जब मेरे साथ एक कुनबा औ कुछ दोस्त थे
जब मैं बिना दरे इन प्रश्नों से टकरा जाती थी
क्योंकि,
विश्वास था कि ग़र गिरी भी तो संभाल लेंगे वो
लेकिन्..अब ऐसा नहीं है

रोज़ एक नया प्रश्न मुझे हरा देता है
और मैं भी शायद हारने की आदि हो गई हूं
रोज़ हारती हूं...
टूटती हूं...
अब मैं डर की सहेली हूं..
कल तक जो मेरा संबल थे.. आज उन्हीं के कारण अकेली हूं

Friday, November 12, 2010

जिसके साथ सफर तय करना था
उसी ने मंज़िल से पहले बांहें छोड दीं

जिसके साथ छेडे थे तराने
उसी ने साज़ की धडकन तोड दी

संग जिसके जीने की आरज़ू थी
उसी ने जीवन की राह मोड दी

मैं नदी बन कर जिसमें समाना चाहती थी
उसी सागर ने साहिल की लकीर खींच दी

Tuesday, November 2, 2010

जीजी की आखिरी चिट्ठी...


"कुछ बोलती क्यूं नहीं? विनय कहां हैं? तु अकेली कैसे आ गयी ससुराल से?"
"मां जीजी को अंदर तो आने दो." मैंने जीजी का बैग हाथ से लेते हुए कहा
"निवी, कुछ तो बोल. कहीं झगड के तो नहीं आयी ना? देख बेटा झगडे हर जगह होते हैं मगर यूं कोई अपना घर छोड देता है क्या? तू सुन भी रही है?"

मगर जीजी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गयी. शायद जानती थी कि अगर बोलेगी भी तो कोई नहीं सुनेगा. और् इसी तरह बिना कुछ कहे एक दिन वो चली गयी.

आज हम सब को छोड कर उसे गुज़रे हुये उसे २० दिन हो गये हैं. उसके कमरे को अब भाभी के लिए खाली करना है. उसके लिए ही जब जगह नहीं थी तो उसके सामान के लिए कहां से आयेगी? तभी एक लिफाफा नज़र में आता है. कोई चिट्ठी है शायद...हां, मां के लिए जीजी की आखिरी चिट्ठी... मां ने उसे सबके सामने लाने को मना किया है. रात को मैं मां के कमरे में कांपते हाथों से वो चिट्ठी खोलती हूं...



मां... तुम्हें याद है हमारा बचपन? जब बाबा नये बस्ते लाये थे? मैं, छुटकी और दादा तीनों को ही वो लाल बस्ता पसंद था मगर वो मेरे हाथ नहीं आया क्योंकि छुटकी छोटी थी तो पहली पसंद उसकी थी और दादा बडे थे मगर तुम्हारी समझदार बेटी हमेशा से मैं ही थी. वो मेरा 'त्याग' का पहला सबक था या शायद तुम्हारी पहली कोशिश मुझे समझाने की कि ज़िन्दगी ऐसे ही कटेगी. और तब से हर दिन ही ना जाने कितने समझौते मैं करती चली गई. ना जाने मेरी कितनी ही चीज़ों से सब अपनी पसंद बीनते रहे और मैंने कभी नहीं जाना कि वो मुझसे क्या छीनते रहे. मैं तब भी त्याग शब्द के मायने से अनजान थी मगर हां कुछ चुभता ज़रूर था जिसे कभी ज़ुबान नहीं दे पाई.मगर दूसरों के लिए खुद की खुशी को नज़रअंदाज़ करने की आदत धीरे धीरे मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बन गई.

और वो दिन तुम भूल सकती हो मगर मैं नहीं कि जब मैंने एम.ए. हिन्दी में करने की इच्छा जताई थी मगर ये डिग्री शायद बाबा के स्टेटस को match नही करती थी और फिर मैंने एम्.बी.ए. किया.मेरी बैक में नौकरी लगने के बाद वो गर्व से सबसे कहते थे कि उनके एक सही निर्णय ने मेरी ज़िन्दगी बना दी. बना दी या बिगाड दी इस बहस में तो मैं कभी पडी ही नहीं..मगर हां बदल तो दी ही थी.

मेरी पसंद तो शायद तिलांजलि देने की आदि हो चुकी थी मगर मेरे शौक को ये सीखना अभी बाकी था मगर सिखाने के लिए कई लोग मौजूद थे और मैं ये भी सीख ही गयी...


बस एक वो ही था जिसने कभी मुझे बदलने की कोशिश नहीं की, खुद ही बदला... वो भी मेरे लिए. और ऐसे में अगर मुझे उस से मुहब्बत हो गई तो इसमें कोई अनहोनी तो नहीं थी. मैं दिन रात सपने सजाने लगी थी उसके साथ घर बसाने के. ठान लिया था कि इस बार सबसे लड जाऊंगी. मगर शायद मैं खुद को जानती नहीं थी. तुमने बस एक बात कही और मेरे सारे सपने झुलस गये. पता नही तुम्हें याद है या नही मगर तुम्हारा कहा हर शब्द मेरे ज़ेहन में तरोताज़ा है.. "चुन लो अगर अपनी ग्रहस्थी की नींव में छुटकी का भविष्य देख सकती हो. सोचा भी है कि तुम्हारे ऐसा करने से उसकी शादी में कितनी मुश्किलें आयेंगी?"

इस एक बात के सिवा तुमने कुछ नहीं कहा और इस एक बात के बाद मैंने भी कुछा नहीं कहा.तुम मुझे कितना अच्छे से जानती थीं ना मां? तुम जानती थीं कि इतना भर कह देना काफी होगा मुझे मेरे सपनों की आहूति देने को विवश करने के लिए.

मैंने अपने प्यार को मेरी और विनय की शादी कि अग्नि में स्वाहा कर दिया.विनय जो तुम्हारी पसंद थे मगर ये शादी उनके लिये भी एक समझौते से ज़्यादा कुछ नहीं थी.

मगर सच कहूं तो तुम पर कभी गुस्सा नही आया क्योंकि तुम खुद ऐसी ही कई आहूतियां देती आई थीं. मेरे और मेरे जैसी हर लडकी के लिए उसकी मां ही तो ऐसे त्याग के आदर्श गढती है...


और बस आज जब ये ख़त लिख रही हूं तो मेरी और विनय की शादी को एक महीना तो हुआ है. मगर ये एक महीना मुझसे सब कुछ ले गया.. मेरी जीने की उमंग भी और मेरी वो बेटी भी जो शायद अपनी मां की आपबीती से डर कर मेरे गर्भ में ही दुबक गई.

नहीं, विनय ने कभी कोई दुर्व्यवहार नहीं किया मेरे साथ, कभी ऊंची आवाज़ में बात भी नही की. बस शादी के कुछ दिन बाद इतना भर कहा था कि उनकी मां के रहने तक ये घर मेरा है मगर मां के बाद मुझे जाना होगा जिससे उनकी पसंद मेरी जगह ले सके. और इसके बाद ना जाने क्यूं जैसे कुछ नहीं रहा. मैं.. जो अपनों की हर ज़्यादती को पीती रही.. उस शख्स से कैसे हार गई जिसे बस कुछ ही दिनों से जानती थी.

मन में कई बार आया कि उनसे पूछूं कि ये सब उस रात क्यूं नही कहा जब फूलों से सजे उस बिस्तर पर मेरे पहले प्यार ने आखिरी सांसें ली थीं? मगर इस सवाल का जवाब मन ने ही दे दिया.. "तुम उस रात मुझे नज़र का टीका लगाना जो भूल गयी थीं"

मैं जानती हूं कि तुम रो दोगी और अनचाहे ही तुम्हारे आंसुओं का ये कर्ज़ मेरे सिर पड गया है. इसे चुकाने को अगले जनम में फिर से तुम्हारी बेटी बन कर आऊंगी बस तब मुझे "त्याग" के मायने मत समझाना...


जीजी का वो ख़त उन सब सवालों के जवाब दे गया जो वो अपने पीछे छोड गई थी. मगर मां नहीं रोयी.. शायद इसलिये कि कहीं जीजी के सिर उसके आंसुओं का कर्ज़ ना चढ जाये...

Tuesday, October 12, 2010

खुली आंखों का स्वप्न


भोर की पहली किरण से गोधूलि की सांझ तक...
पानी की शीतलता से अग्नि की आंच तक...
मिथ्या की संतुष्टि से सत्य की प्यास तक...
विछोह की पीडा से मिलने की आस तक...
जीवन के प्रारम्भ से म्रत्यु की अंतिम सांस तक...

मैं खुद को तेरी हंसी के उजले सवेरे में देखा करती हूं
मैं खुद को तेरे कल के बसेरे में देखा करती हूं

Monday, October 4, 2010

कवयित्री नहीं कविता हूं मैं...

दर्द की सच्चाई पर चढाती हूं सच का मुलम्मा
पावन नहीं पतिता हूं मैं...

छू कर पल दो पल को ज़िन्दगी तुम्हारी,
आगे निकल जाऊंगी...
ठहरा पानी नहीं, सरिता हूं मैं...

मेरा आना आज हंसी और मेरी याद कल आंसू देगी
और उस पर भी है ये दावा मेरा...
ग़ैर नहीं, वनिता हूं मैं...

Sunday, October 3, 2010

स्वप्न अब भी मेरे हैं...



जिस घर की खिडकी के शीशे तेरे खेलों से चटके हों
मैं उस घर में अब पायल छनकाना चाहती हूं
जिस घर के बिस्तर में तूने भी तकिये पटके हों
मैं उस घर के कमरों में गज़रा महकाना चाह्ती हूं
जिस घर की दीवारें तेरे नटखट खेलों की साथी हों
मैं उस घर के आंगन में आंचल लहराना चाहती हूं
जिस घर की क्यारी में तूने भी बीजे बोये हों
वहां के तुलसी चौरे पर मैं दीप जलाना चाहती हूं

जिस घर में तेरी बातें हो... तेरे बचपन की यादें हों...
दादी की मीठी लोरी हो... मां के गुस्से की झिडकी हो...

उस घर के हर कोने को हाथों से सजाना चाहती हूं
मैं अपना आंगन छोड के जीवन तुझ संग बिताना चाहती हूं

तेरे सुख दुख की साझी बन...तुझको अपनाना चाहती हूं

Thursday, September 30, 2010

उसे बख्श देना...


मैं तुम पर बिगडा करती हूं कि...
मेरी किस्मत में उसका नाम नहीं लिखा
कि उसका हाथ मेरे हाथों में नहीं दिया
कि उसकी सांसों से मेरे जीवन की डोर नहीं बांधी
कि उसका साथ मुझे नहीं बख्शा

लेकिन ये सब कहते हुये,
शायद मैं ये भूल जाती हूं...
कि उसका नाम मेरी दुआओं में शामिल ही कहां था?
उसको मैंने मांगा ही कब था?

मैंने तो बस उसके चेहरे पर हंसी मांगी थी
उसकी राहों में फूलों की आरज़ू की थी
उस से जुडे हर शख्स के लिये रौनक चाही थी
और मांगी थी...
उसके लिये ऐसी ज़िन्दगी कि लोग हसद करें

और ये सब तुम उसे दोगे... जनती हूं मैं
वरना...
उसे पाने की खातिर नहीं, लेकिन...
उसकी खुशियों के लिये तो... तुमसे झगड ही पडूंगी...

Monday, September 20, 2010

भारमुक्त


मेरे लबों पर उसकी कहानी क्यूं रहे?
रगों मे लावे की तरह बहते खून की रवानी क्यूं रहे?
कि जिसे कहती हूं मैं ज़िंदगी अपनी,
जब वो ही नहीं तो ज़िन्दगानी क्य़ूं रहे?

कि वो मेरे अपने हैं, उनसे खुद को छीन नहीं सकती
तोड दूंगी डोर ही रिश्तों की, भला ये रिश्ते बेमानी क्यूं रहे?
हक़ है उन्हें मुझे दर्द देने का, कि खुशियां लुटाईं हैं मुझ पर...
मगर मेरे दर्द के कर्ज़ से दबी उसकी जवानी क्यूं रहे?

मैं करूंगी हक़ अदा हर एक एहसान का..
हर उस शख़्स का जो मेरी ज़िंदगी से जुडा, जो मेरा मेहमान था...
मगर मेरे ग़म की जागीर उसके पास बतौर निशानी क्यूं रहे?
ये मेरे हिस्से के आंसू हैं, मेरे रिश्तों से मिले...
इन आंसुओं में उसका हिस्सा???
अब भला ये मेहरबानी क्यूं रहे?

Sunday, September 19, 2010

यादों को ख़त...


ये उदासी, ये दर्द कहना तो बहुत कुछ चाहता है
मगर मन के किसी कोने में दबी तुम्हारी याद...
गाहे बगाहे अपना असर दिखाती है और...
पानी की एक बूंद मुझे कभी रुसवा... कभी तन्हा कर जाती है

जानते हो???

'जिनको' कल एतराज़ था मेरे और तुम्हारे हमकदम होने पर
वो आज भी मुझे अपनी मर्ज़ी से चलाया करते हैं
मेरी दुखती रग को जान कर छू जाते हैं...
"कितना रोती हो?" कह कर और भी रुलाया करते हैं

मैं 'उनको' और तुमको अक्सर एक तराजू में तौला करती हूं
पलडा हमेशा तुम्हारी तरफ ही झुकता है, मगर...
मैं एहसान का एक बांट 'उनके' पलडे में रख कर
अनचाहे ही हर बार उन्हें जिताया करती हूं

हर बार तुम्हारी हार मेरे दिल में गहरे उतर जाया करती है
तुम्हें भुलाने की एक और कोशिश सिरे से बिखर जाया करती है
जिसे 'त्याग' कह कर पहले खुद को समझा लिया करती थी,
अब वो भी किसी ज़ख्म पर मरहम नहीं रखता...
'जिनकी' खातिर कर दिया तुम्हें पराया,
'उनमें' से भी कोई कभी सिर पर हाथ नहीं धरता...

आज भी जब आंखें और आंसू बेहद थक जाते हैं
तब...
तुम्हारी ही कही कोई बात ना जाने कौन दोहरा देता है?
मैंने तो आईने को बरसों से मुस्कुराते नहीं देखा, मगर...
मेरे अंदर तुम्हारा प्रतिबिम्ब अब भी मुस्कुरा देता है...

Saturday, September 18, 2010

एक नाकामयाब कोशिश...


"अब तुम तेज़ क्यूं नहीं चलतीं?"
"मैं तुम्हारी तरह ये कंगारू चाल नहीं चल सकती."
"मैं कंगारू हूं? रुको अभी बताता हूं..."
"पहले पकड तो लो फिर बताना" इतना कह कर वो समुद्र तट पर दौड पडी. पहले तो मैं काफ़ी देर तक उसे पकडने की कोशिश करता रहा फ़िर कुछ तो थकावट और कुछ लोगों की हम में बढ्ती दिलचस्पी के कारण मैं वहीं रेत पर बैठ गया. वो भी वहीं करीब आ कर बैठ गई.

"क्यूं भड्कूलाल, हार गये?"
"अभी मज़ा चखाता हूं." कहकर मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढाया ही था कि वो फुर्ती से हट गई और मेरी अंगुलियां पास पडे टिन के एक कैन पर बज गईं.
"ओह! लग गई क्या?" मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर वो उसे सहलाने लगी. मेरी अंगुली से ज़्यादा दर्द उसकी आंखों में था. मैंने धीरे से उसका हाथ दबाया और कहा, "अब छूट कर दिखाओ मेरी पकड से."

"कौन छूटना चाहता है जी?"

"अच्छा जी?" मैंने जब उसकी आंखों में आंखें डाल कर कहा तो उसने ज़ोर से हंसते हुये चेहरा फेर लिया. ये उसका अपना तरीका था... शर्माने का या यूं कहें कि अपनी शर्म छिपाने का.

"चलें?" उसने अपना हाथ छुडाते हुये कहा

"मगर अभी तो तुम्हारे पापा यानी मेरे future father-in-law व्यस्त होंगे. ये सही मौका नहीं होगा तुम्हारा हाथ मांगने का. इतनी जल्दी है क्या?"

मैंने उसे छेडने की कोशिश की मगर ना जी... क्या मज़ाल कि वो बात को हाथ से छूट कर कहीं जाने दे.
"जल्दी तो है. मैं ना पापा को फोन कर के यहीं बुला लेती हूं"

उसने बैग से mobile निकाला और मैं हमेशा की तरह उसे देख कर हंसता ही रह गया. कोई बला की खूबसूरत तो नहीं थी मगर हां खूबसीरती में कोई कमी नहीं थी और कुछ था उसकी ख़नकदार हंसी में जो उसकी तरफ खींचता था.


आज कितने साल बाद उसकी वही हंसी देखूंगा. आठ साल में पता नहीं कितनी बदल गई होगी मगर उसकी हंसी की वो ख़नक शायद अब भी वैसी ही हो... यही सब सोचते हुये मैंने उसकी कोठी के बाहर लगी doorbell बजा दी. एक अधेड महिला ने दरवाज़ा खोला.

"आप सुयश हैं ना?"
"जी? जी हां... आप?"
"आप आइये, बहूजी आपका ही रास्ता देख रही हैं."

मैं उसके वैभव को देख कर चकित था. शायद आज भी उसने वही मोरपंखी नीला पहना हो...मेरा मनपसंद. अपने ख़यालों में ग़ुम मैंने उस महलनुमा कोठी की बैठक में प्रवेश किया. लेकिन ये सामने कौन है? मेरी वसु???

नहीं ये मेरी वसु नहीं हो सकती...ये सफ़ेद कपडे...चेहरे पर उम्र से पहले दस्तक देता बुढापा और उसकी वो औपचारिक सी मुस्कुराहट जो होठों के सिवा चेहरे पर कहीं भी नहीं पहुंची थी.

"बैठो सुयश"
"..., तुम तो बेहद बदल गई हो वसु!"
"पहले जैसा तो कुछ भी नहीं रहा ना?"
"तुम्हारे पति नहीं दिखाई दे रहे?"
"वो? वो मुझे भी कभी-कभी ही दिखाई देते हैं." उसने हंसने की नाक़ाम सी कोशिश की
"मतलब?"
"मतलब ये कि वो मेरी तरह फालतू नहीं हैं... बहुत काम हैं उन्हें. उनकी छोडो, क्या लोगे तुम्?"
"...."
"इतनी कडवाहट ज़िंदगी में कब भर गई?"
"बस, जब से मिठास से नाता टूटा"
"नाता टूटा कहां था सुयश? तुमने ही तोड दिया."
आगर मालूम होता कि ये अंजाम होगा तो कभी तुम्हारे पापा से तुम्हारा सौदा नहीं करता."
"सौदा?"
"हां... तुम्हारी ज़िंदगी से दूर जाने की बाक़ायदा क़ीमत अदा की थी उन्होंने."

उसके चेहरे पर किसी तरह के आश्चर्य के भाव नहीं उभरे. मानो हर भाव...हर भावना से परे हो गई हो. एक अजीब सा ठहराव सा था जो उसकी ज़िंदगी के साथ साथ उसकी बोली में रच बस गया था.

"हम्म! पापा तो हमेशा से ही काबिल व्यापारी थे मगर तुम कब इतने हिसाबी किताबी हो गये सुयश?" कहते हुये उसकी आंख से एक मोती टूट कर गिरा जिसे मैं चाह कर भी अपनी मुट्ठी में क़ैद नही कर पाया.

"तुम्हारी हंसी के हिसाब किताब में तो मैं हमेशा ही पक्का था वसु. लेकिन हां, तुम्हारे पापा की तरह काबिल व्यापारी नहीं था. वो मेरी ज़िंदगी भर के अरमान, खुशियां, सपने सब ले गये....बिना कीमत चुकाये और मुझे मालूम तक ना होने दिया."

"मेरी हंसी की कीमत तुम्हारी खुशी कभी नहीं थी सुयश. काश! तुमने मुझसे पूछा होता तो तुम्हें मालूम होता कि मेरी हर हंसी तुमसे जुडी थी, सिर्फ तुमसे. और जब तुम ही नहीं थे तो मैं इस पत्थर के मक़ान में हंसी ढूंढने की कोशिश भी क्यूं कर करती?"

"इस मक़ान को घर बनाने की कोशिश तो कर सकती थीं ना?"

"मेरी हर कोशिश को तुम्हारा संबल चाहिये होता था सुयश और आज भी मैं बदली नही हूं."

"मैं चलता हूं वसु." मैंने अपने आंसुओं को छुपाकर उठना चाहा.
"देखती हूं कि तुम भी नहीं बदले. ख़ैर मैं ने तुम्हें कभी नहीं रोका, आज भी नहीं रोकूंगी. हो सके तो खुश रहने की कोशिश करना."

मैं तेज़ कदमों से बाहर चला आया. शुक्र है कि बारिश हो रही है और मुझे अपने आंसुओं को रोकने जैसी कोई कोशिश नहीं करनी होगी. लेकिन इन आंसुओं में ये पछतावा कभी नहीं बहेगा कि मैं उसे समझ नहीं पाया जिससे सच्चे प्यार का दावा था मुझे. उसकी हंसी की ख़्वाहिश की थी मगर... और वो आज भी मुझ पर ये एतबार रखती है कि मैं उसके बिना खुश रहने की बस कोशिश भर कर सकता हूं... सिर्फ कोशिश... एक नाकामयाब कोशिश...

Monday, July 19, 2010

बंजर महफिल


पता नहीं ये कडवाहट का पतझड कब आया और
खिलखिलाहट अधरों से सूखे पत्तों की तरह झर गई
अब तो उन पत्तों के निशान भी नहीं मिलते...

बैठी रहती हूं दिन भर कथित अपनों से घिरी
मगर जिनसे घण्टों तक करूं बेवजह की बातें
ऐसे तो कोई इंसान नहीं दिख्ते....

दूर तक चली जाती हूं जानी पहचानी गलियों में
मगर कजिनके अंदर से आये ठहाकों की आवाज़
मुझको तो ऐसे अब मकान नहीं दिखते...

चुप्पी खटकती है महफिलों में ज़्यादा
पा जाऊं जहां दो घडी का सन्नाटा
इस आबाद शहर में ऐसे खण्डहर वीरान नहीं दिखते...

Thursday, July 15, 2010

पराजित प्रयास



अब से कोशिश करूंगी तुझे भूल जाने की
क्योंकि रंग लाती नहीं दिख्ती कोई कोशिश संग घर बसाने की

चंद दिनों के आंसू और एक उमर का दर्द्
नहीं कोई बडी कीमत इश्क़ की नेमत पाने की

दीवारों से सिर पटके तू गवारा नहीं मुझे
और मुझमें हिम्मत नहीं दीवारें तोड आने की

दिल की दौलत लगती दो कौडी की
जब होती बात खज़ाने की

मेरा जीवन मुझसे ज़्यादा जी कर भी वो कहते हैं
नहीं सुनेगी बात हमारी ये फसल नये ज़माने की

तू भी मुझको याद ना करना
जान कीमती बर्बाद ना करना

ज़िन्दगी का क्या है? कट जायेगी...
या तो अल्हड नदिया सी या फिर ठहरे पानी सी

Thursday, July 8, 2010

खुदा की भूल हो गये...


ग़म बांट के हल्का करने की कोशिश की थी
चाहे अनचाहे कुछ ज़ख्म हरे हो गये

मेरा दर्द सुनने की ख्वाहिश थी उन्हें बहुत
किस्सा सुने बिना ही फिर परे हो गये

छेड दिया कोई तार ऐसे कि रात आंखों में कट गई
दर्द-औ-ग़म का मालूम नहीं मग़र ये खबर बंट गई

मेरी कमदिली के किस्से मशहूर हो गये
वो फेंक के पत्थर ठहरे पानी में कहीं मशगूल हो गये

चंद अल्फ़ाज़ों में मेरा ग़म ढूंढना है फिज़ूल
जो चर्चे थे कभी महफिल में, अब राह की धूल हो गये

जिन्हें किताबों में रख के छोड दिया हो
किताब पर भी बोझ, हम वो फूल हो गये

लाख चाह कर भी सुधरे ऐसी सूरत नहीं कोई
हम चांद में दाग जैसी खुदा की भूल हो गये

Tuesday, July 6, 2010

मैं फलक की तरफ चली रेत पे कदम के निशान बनाते हुए...
मेरी हमकदम थीं लहरें मेरा हर निशां मिटाते हुए...

Sunday, July 4, 2010


दिन सूने और रातें उजली
संग सजे मुस्कान और सिसकी
सबकी नई नई सी सूरत, सबकी सीरत बदली बदली

दिल में सबके कुछ राज़ दफ़न हैं
हर एक अदा है ज़रा अलग सी
वो लुटती अपनों के हाथों
इसी से उसको कहते पगली
खामख्वाह ही बन जाते किस्से
और बंट जाते जैसे चिठ्ठी पत्री

सबकी नई नई सी सूरत, सबकी सीरत बदली बदली

उसके दुःख में कई मुनाफ़े
सुख में निरों की हालत पतली
उसे सुना कर तीखी बातें
खुद ही खुद को लगती मिर्ची
राम नाम का सत्य भुला कर
नीयत कुछ सिक्कों पर फिसली

सबकी नई नई सी सूरत, सबकी सीरत बदली बदली

कहते किये अह्सान कई हैं
करते बातें अगली पिछली
कुछ पे वो बस हंस देती है
कुछ पे घिन से आती मितली
चील कौवे से बैठे फिराक़ में
कब उस पर टूटेगी बिजली

सबकी नई नई सी सूरत, सबकी सीरत बदली बदली

Friday, July 2, 2010

पाप और पुण्य

कमरे की खामोशी में उनकी आंखों से दर्द बहा करता है
और मैं उसे चुप्चाप पी लिया करती हूं
करते हैं जब सब उनसे अपनेपन की बातें...
झूठे दिखावे के कडवे किस्से और एह्सान के तौर पर जागती रातें...
तभी कोई आंसू ना ढुलक जाये...
इस डर से पलकों के कोर-सी लिया करती हूं

ऐसा भी नही कि बेहद प्यार है हमें उनसे या उनकी कमी बेहद खलेगी
बस ये सच चुभता है कि जाडों में अंगीठी फिर ना जलेगी

मगर इस सब को हटा के परे,
मैं ईश्वर से उनकी मौत की प्रार्थना किया करती हूं
कोंचती सुइयों और ग्लूकोज के सहारे पुण्य बटोरते हैं सभी
और मैं उनकी मौत की दुआ का पाप ओढ लिया करती हूं

Tuesday, June 8, 2010

हम दोनों लडकी हैं


"मां ये काशी सडक पर क्यूं रहती है?"
"क्या पता बिटिया...जाने कौन अभागिन है और भाग्य का कौन सा मज़ाक उसे यहां अनजानों की बस्ती में खींच लाया है?"
"बिरजू काका कह रहे थे कि तुम उसे रोटी देती हो?"
"हां री, जब इतने लोग इस हवेली में मुफ्त की रोटी तोड रहे हैं तो ये पगलिया क्यों नहीं?"
"मां तुम काशी को पगलिया ना कहा करो"
"लो कर लो बात... अब पगलिया को पगलिया ना कहें तो क्या सयानी कहें?"

मां की ये व्यंग्य भरी मुस्कान हमसे सहन नहीं हुई और हम छत पर आ गये. मौसम साफ है, हल्के हल्के बादल हैं मगर बिरजू काका कह रहे थे कि बारिश नहीं होगी अभी. चांद लुकाछिपी का खेल खेल रहा है.बादलों की ओट से झांकता है और तारों को देख कर फिर से छिप जाता है. और काशी...वो भी तो अपनी फटी चुनरी के झरोखों से हमें देखती है और फिर छुप जाती है.

ओहो...ये काशी का फितूर उतर क्यूं नहीं जाता हमारे दिमाग से? कितना अच्छा मौसम है... ऐसे ही बादलों में तो हम और बडे भैया अपनी कहानी के चरित्र गढ़ा करते थे. अब तो बडे भैया भी बडे शहर जा कर हमें याद नहीं करते. बाबूजी की तरह उन्हें भी लगता है कि रानी को बस लत्ते और गुडिया ही चहिये. तो ना करें हमें याद, हमें ही कौन सा उनकी याद आती है और ये खेल तो हम अकेले भी खेल सकते हैं...

वो देखो वो बडा सा राक्षस उस छोटे बच्चे को पत्थर से मारने वाला है...

"रानी बिटिया..अरी ओ रानी बिटिया...जल्दी नीचे आओ. ऊ कमबखत कासी ने स्यामसुन्दर के मौढ़ा को मूढ फोड दओ. जन्दी चल के रोको बा कासी ए..."
"पगला गया है क्या बिरजू. इतनी रात गये रानी कहीं नहीं जायेगी. तेरे मालिक को पता चला तो तेरे साथ साथ मेरी भी टांगें टूट जानी हैं"
"ई पडोस मां तो है ई मलकऐन...बिटिया कूं अभाल संगै लिये आत हैं"
"अरे ये वहां क्या करेगी आखिर और जो उस काशी ने इसे ही पत्त्थर मार दिय तो?"
"नहीं मां, काशी हमें कभी नहीं मारेगी"
"हां मलकएन, रानी बिटिया से तो बडा सनेह मानत है ऊ. हमें तो लागत है के कोई रिस्ता है दोनन का परले जनम का"
"तू पगला गया है बिरजू. जा छत से कपडे उतार और रानी तू भी चुप्चाप सो जा अब"
"और काशी, मां?"
"उसकी चिन्ता तू मत कर.कोई बहन नहीं है वो तेरी"
"मगर है तो वो मेरे जैसी ही..."
"रानी, आज कहा है,आइन्दा मत कहना. उस पगलिया और तुम्हारी क्या समता?"
"मगर मां..."
"चुप...एकदम चुप. सो जा अब."

ये काशी भी न... खुद तो मार खाती है सारे गांव से, हमें भी डांट लगवा दी. और हमारा खेल भी खराब कर दिया. हवा जाने उस बादल को उडा के कहां ले गयी. जैसे काशी का भाग्य उसे यहां ले आया है.

मगर क्या वो हम जैसी नहीं है? फिर मां ने हमें और बिरजू काका को क्यूं डांटा? लगता है कि बाबूजी ने मां को ऊंची ऐढी की चप्पल खरीदने से मना कर दिया होगा, तभी पारा चढा हुआ है और इस काशी के कारण हमारा भी पारा चढ गया है.

"बिरजू काका, आज हम ठण्डा दूध पियेंगे"
"ठीक है बिटिया"
"क्या ठीक है? लाओ ना दूध."
"लो... जे रहौ, तुम्हरे लये ठण्डौ दूध"
"काका, काशी हमरे जैसी है ना?"
"हां बिटिया"
"क्या हां बिटिया? बिना सोचे बस हां में हां मिलाते रहते हो. कैसे है हमारे जैसी?"
"बस है"
"कैसे?"
"उ...ऊ... हां देखो...उसके दुइ हाथ हैं, तुम्हार भी हैं...उसके एक नाक हैम तुम्हारे भी ऐ...दुइ आंख...दुइ पैर.."
"बिरजू..."
"आत हैं मलकऐन..."

मां भी ना... सूची भी पूरी नहीं होने दी. हमें ही बनानी होगी...

१. हम भी स्कूल नहीं जा सकते, वो भी नहीं जा सकती... हम दोनों लडकी हैं
२. हम भी सिर पर पल्लू रखते हैं, वो भी... हम दोनों लडकी हैं
३. हम भी हमेशा बाबूजी के घर नहीं रह सकते, वो भी अपने बाबूजी के घर नहीं रहती... हम दोनों लडकी हैं

मगर मां तो कहती है कि वो पगलिया है. तो क्या एक पागल लडकी और एक सयानी लड्की मे फर्क होता है? शायद हां...

१. हम घर में कैदी है, वो खुली हवा में... हम दोनों लडकी हैं
२. हम सब पा कर रोते है, वो सब खो कर... हम दोनों लडकी हैं
३. हमारी चुनरी सिर से गिरे तो सब डांटते हैं और उसकी गिरे तो सब झांकते हैं... हम दोनों लडकी हैं

मगर ये भेद भी इतने समान से क्यूं लगते है? क्यूं हमें एक पागल और एक सयानी लडकी का फर्क समझ नहीं आता? शायद इसलिये क्योंकि... हम दोनों लडकी हैं.

Monday, May 17, 2010

दिव्य


समन्दर करता है गुमान
विशालता का है अभिमान
सोचता है ना जाने कितनों को देता हुं जीवन दान
ना इस बात से बेखबर, ना इस तथ्य से अनजान कि...
इस विशाल, विस्त्रत जीवनदायी देह का स्वामित्व यूं ही नहीं मिल गया खारे पानी के सागर को
ना जाने कितनी नदियों ने अपना अस्तित्व मिटा के भरा है इस गागर को
खुद को मिटा के, बिना कुछ पाने की आशा के...
भेद सब हटा के, बिना कुछ खोने की निराशा के...
प्रेम के वशीभूत सर्वस्व निछावर किया
पता है कि कुछ हासिल नहीं होग मगर खुद को सौंप दिया
जानती हैं कि निरुद्देश्य, निर्ध्येय होने का ताना ही मिलेगा
खुदी को मिटाने का कोई सिल खुशनुमा नहीं होगा
लेकिन...
वो प्रेम क्या जो गणना करे...
जो प्रीतम को पाने को मंत्रणा करे...
जो त्रष्णा या घ्रणा करे...

ये प्रेम तो बस खुद को मिटाना जानता है...
सब कुछ लुटा के किसी को हंसाना जानता है...
सरिता का ये प्रेम्, सागर और सूर्यकिरण के मिलन पर भी ईर्ष्या नहीं करेगा...
क्योंकि ये प्रीतम की हंसी में मुस्कुराना जानता है

Tuesday, May 11, 2010

पराजित


मैं अंधेरे में ना जाने किस से समर किया करती हूं
मैं कुछ अपनों और कुछ परायों की मौत हर रोज़ जिया करती हूं

हासिल नहीं इस ज़द्दोज़हद से कुछ भी,
फिर भी जाने क्यूं ज़िद किया करती हूं?

समझाते हैं सभी कि,
ग़र मेरा है तो कहीं जा नहीं सकत और
ग़र पराया है तो मुझे पा नहीं सकता

मग़र मैं उसे पाने को 'रब से मन्नत' औ 'ज़माने से मिन्नतें' किया करती हूं
मैं कुछ अपनों और कुछ परायों की मौत हर रोज़ जिया करती हूं

Friday, February 5, 2010

पगलिया उवाच्!!!


पिया तोरा जादू मोरे सिर चढ बोले
तोरी बातें सुन मन इत उत डोले
ना सूझे मोहे का है सच और का है झूठ
जो तू कहे सूरज में नाहीं गरमी तो सूरज से जाऊं रूठ

हंसती हैं मोपे सखी सहेली सारी
मोहे छेडें, सतावे और खावें मोरी गाली
पिया इनकी नजर में तू मत अइयो
इनकी गली में सजन तू मत जइयो
जे मुई तोहे नजराय देंगी
मोहक हंसी कूं नजर लगाय देंगी
तोरी खुसिअन पे जाऊं मैं वारी वारी
तोरी हंसी मोहे सब जग तें प्यारी
जो तू हो उदास के नदिया है सूखी जाको पानी है खतम
सच जान पिया जाहे भरन के करूंगी जतन

सब कहें हैं के जे बौरा गयी है
प्रेम धुन रटत है...पगला गयी है
मोहे तो इन लोगन पे हंसी बडी आवे है
जे सब बातें मोरा मन बहलावें है

मूढ नहीं जानेंगे प्रीत का होवे है
का है हार और जीत का होवे है
कोई इन्हें समझावे... कोई तो जे बतलावे...
मैने करौ है सौदा खरा खरा
कोई व्यौपारी परखे तो जाने जामे लाभ बडा

के अब मोहे अपने जतन नाहीं करने
हंसने और जीने के परयत्न नाहीं करने
तोरी खुशी मोहे हंसी दे जावेगी
तोरी नींद मोहे रतिया सुलावेगी
तू जीमेगो मेरी भूख मिट जावेगी

ऐसो सौदा कोई लाला का करेगो
सोची बूझी ऐसी कोई चाल का चलेगो
मोरी समझ जे जग नाहीं समझेगो
प्रीत के खेल के नियम सारे उल्टे हैं
सुलझाय सो है उलझे, उलझान वाले सुल्टे हैं

जे बातें बुद्धिहीन अभइ नाहीं जानेंगे
जब हम हो जैहें भव सागर से पार
हो के सजन प्रेम नैया पे सवार
तब जे पढेंगे... तब जे जानेंगे

सच कहती थी पगलिया... तब पहचानेंगे

Thursday, January 21, 2010


वो छंद में बंधता नहीं
वो काव्य में ढलता नहीं
उन्मत्त-सा उन्माद है
जो काग़जों में थमता नहीं

वो आकाश सम छतरी है मेरी
उसका छोर भी मिलता नहीं
वो प्रेम की गठरी है मेरी
जिसका सिरा कभी खुलता नहीं

वो मीत है...वो प्रीत है...
उसकी मुस्कान ही मेरी जीत है
ग़र संग मेरे वो है खडा तो
दुर्भाग्य भी भयभीत है...

ग़र फल मेरी मुस्कान हो...
मेरी खुदी, मेरा सम्मान हो
तो श्रम से वो थकता नहीं...

पर छंद में बंधता नहीं
वो काव्य में ढलता नहीं

Sunday, January 3, 2010

इक शख्स...मेरा अक्स...


तुम पानी में हिलते प्रतिबिम्ब से लगते हो... मेरा प्रतिबिम्ब
मेरी हर अनकही सुनते हो...
मेरी हर अनसुनी कहते हो...
लगता है जैसे मेरी सांसें जीते हो
जब सामने होते हो तो जैसे आंखों ही आंखों में मेरा अक्स पीते हो

झिलमिल करते... जगमग से... पानी से झांकते हो...
मेरी हंसी हंसते हो...
मेरे आंसू रोते हो...
मेरे सपने सजाये अपनी आंखों मे
तुम मेरी नीदें सोते हो...

जानती हूं कि तुम बस मेरे लिये जीते हो...फिर भी डर लगता है
जब पानी पर बना... झिलमिलाता.... जगमगाता...
तुम्हारा प्रतिबिम्ब... हक़ीकत के किसी कंकड से टूट जाता है...

लेकिन हर बीतते दिन के साथ ये डर दूर होता जा रहा है...
क्योंकि ऐसे ढेरों कंकड सहने के बाद भी...
तुम बस डगमगाते हो...
एक पल को ओझल होते हो नजरों से फ़िर वापस आ जाते हो...
मैं जब भी तुम्हें पानी में ढूंढने को झुकती हूं...
तुम मुस्कुराते हुये... पानी से झांकते दिख जाते हो...
कितनी आसानी से मेरा हर डर दूर कर...
... मेरे चेहरे पर खुशी के रंग बिखेर जाते हो