Monday, April 6, 2009

प्रतीक्षारत ...


जब जब मैंने उसको देखा, सदा प्रतीक्षारत पाया
विधाता ने उसके भाग्य में लिखा असमंजस का साया
करती है परिश्रम कठोर, भीषण सूर्यताप में
ना थकते देखा है उसको वर्षा के उत्ताप में

और करती है मौन प्रतीक्षा... थोड़ा सा धन पाने को
जिसका करती है दोहन, दो जून के खाने को
घर जा कर छोटे बालक को प्यार से पुचकारती है
भूख से व्याकुल उसके मुख को कातरता से निहारती है
आटे में कुछ पानी मिला कर उसकी भूख मिटाती है
सुख की आस करे ईश्वर से किन्तु प्रतीक्षा ही पाती है

इसी प्रतीक्षा के पूर्ण होने की बीस साल प्रतीक्षा करती है...

अब म्रतप्राय देह उसकी उस पुत्र की राह तकती है
जो गया था दवा को लाने और अभी ना आया है

त्याग देती है प्राण अभागिन, म्रत्यु संदेश जो आया है
किन्तु साया प्रतीक्षा का अभी ना हटने पाया है
निश्चल शव पड़ा है उसका
कफन नहीं मिल पाया है...

3 comments:

  1. ज़िन्दगी कि इतनी कठिन प्रतीक्षा ही कविता है, कभी कभी ही बोलती है.

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  2. i have read all ur works... i found it the best... keep writing...

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