Tuesday, March 31, 2009

पाषाण पीड़ा

तुम नीर मैं पाषाण हुई
तुम चले गये कुछ पीर हुई
झर झर झरना-सा बनकर
तुम प्रतिदिन मुझसे मिलते रहे
तन पर भी छोडी छाप और मन में भी तुम घुलते रहे
अब छाप छोड मुझ पर अपनी
तुम आगे बढना चाह्ते हो
पाषाण कहें सब मुझको, पाषाणता तुम दिखलाते हो
कहते हो धार नयी कोई फिर तुमको छू जायेगी
कहते हो जल की नयी लहर फिर शीतलता दे जायेगी
गर मान भी लूं ये बात सभी,
क्या पीर कभी छुप पायेगी???
माना कोई नयी जलधारा फिर पत्थर पिघलायेगी
लेकिन जो छाप है तुमने छोडी,
क्या छाप कभी मिट पायेगी???
दुनिया तो बस पत्त्थर को ही पाषाण को ही पाषाण ह्र्दय बतलायेगी...
लेकिन जो सहा है पत्त्थर ने,
क्या कभी जान भी पायेगी???

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